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‘पीपली लाइव’ मेरी और महमूद दोनों की फिल्म है: अनुषा

interview of anusha rizvi director peepli live

किसानों की खुदकुशी जैसी गंभीर समस्या पर व्यंग्यात्मक शैली में ‘पीपली लाइव’ बनाकर निर्देशिका अनुषा रिज़वी ने पहली ही फिल्म से अपनी अलग पहचान गढ़ ली है। हालांकि, फिल्म के केंद्र में किसानों की बदहाली है, लेकिन कटाक्ष भारतीय मीडिया की संवेदनहीनता से लेकर राजनीतिक तिकड़मबाजी तक सभी पर है। फिल्म बनाने के अपने पहले अनुभव से लेकर तमाम दूसरे पहलुओं पर अनुषा रिज़वी से खास बात की पीयूष पांडे ने।

अनुषा जी, सबसे पहले एक बेहतरीन फिल्म बनाने के लिए मुबारकबाद।

धन्यवाद। फिल्म पसंद करने के लिए।

 
लेकिन, फिल्म पर बात करने से पहले आपकी बात। आप एनडीटीवी में रही हैं-ये तो मालूम है। लेकिन, क्या आप अपने बारे में विस्तार से बताएंगी।
 
देखिए, अपने बारे में बताने को ऐसा कुछ खास नहीं है। स्कूली पढ़ाई दिल्ली के सरदार पटेल विद्यालय से की। फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया। करियर की शुरुआत एनडीटीवी से की। लेकिन, 2003 में नौकरी छोड़कर बतौर फ्रीलांसर काम शुरु किया। अलग अलग किस्म के कुछ प्रोजेक्ट्स किए।
 
 
तो पत्रकारिता को अलविदा कह दिया है आपने पूरी तरह से?

जवाब-औपचारिक तौर पर कहें तो हां। मैं किसी मीडिया कंपनी से नहीं जुड़ी हूं। किसी मीडिया संस्था से नहीं जुड़ी हूं। लेकिन, मीडिया को अलविदा नहीं कहा है। जो काम मीडिया को करना चाहिए, वो ही हम फिल्मों के जरिए कर रहे हैं।

आपने फिल्म में मीडिया पर व्यंग्य किया है। एक कटाक्ष है। जहां तक मुझे मालूम है फिल्म का आइडिया आपका करीब सात साल पुराना है। लेकिन, उस वक्त भारतीय मीडिया की यह हालत नहीं थी, जैसी आपने दिखायी है। तो क्या वक्त के साथ मीडिया वाला हिस्सा बदलता गया?

बिलकुल नहीं। हालात काफी साल से ऐसे हैं। पांच-छह साल पहले ही मीडिया में कंटेंट के गिरते स्तर का हाल दिखना शुरु हो गया था। टीआरपी की मारामारी शुरु हो गई थी।
 

लेकिन आपको नहीं लगता कि आपकी फिल्म ने मीडिया का सिर्फ मजाक बना दिया। क्या मीडिया सिर्फ नौटंकी दिखाता है। ऑपरेशन दुर्योधन, जेसिका लाल हत्याकांड और हाल में कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान मीडिया की भूमिका क्या ठीक नहीं लगी।

आपको नहीं लगता कि आम आदमी जो ख़बरें देखता है, उसमें मनोरंजन होता है। हां, फिल्म एक फिक्शन है और इसमें मीडिया की जो कमियां हैं, उन्हें बताने की कोशिश की गई है। मीडिया अच्छी कवरेज करता है, इससे इंकार नहीं लेकिन क्या मीडिया की जिम्मेदारी सिर्फ एक बार स्टोरी रिपोर्ट कर देना है। किसी ख़बर का क्या असर होगा या उसके फॉलोअप करना मीडिया की जिम्मेदारी नहीं है। आपने कुछ उदाहरण लिए, लेकिन इन्हीं उदाहरणों के बीच आरुषि हत्याकांड पर मीडिया की भूमिका भी है,जो परेशान करती है। वैसे, मैं यहां ये भी साफ करना चाहूंगी कि फिल्म में किसी खास मीडिया चैनल या मीडिया पर्सनेलिटी को टारगेट करने की बात बिलकुल गलत है,जैसा कुछ लोग कह रहे हैं। एक बड़े तबके को फिल्म में दिखाया गया है, और जो नामी चेहरे हैं, लोगों को लगता है कि उन्हें टारगेट किया गया है। जबकि ऐसा कतई नहीं है।

आपका इशारा दीपक चौरसिया से मिलते किरदार की तरफ है?

नहीं,बिलकुल नहीं। मैंने कभी दीपक के साथ काम नहीं किया। जो मीडिया की बड़ी हस्तियां हैं,लोग किरदारों को उनसे जोड़कर देखने लगते हैं। लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है।

फिल्म रिलीज होने के बाद दो बातों पर विरोध हो रहा है। विदर्भ के किसानों का आरोप है कि फिल्म में किसानों की खुदकुशी को मुआवजे से जोड़कर दिखाया गया है, जबकि किसान सरकार की गलत नीतियों की वजह से खुदकुशी करते हैं। दूसरा आरोप है कि फिल्म में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का अपमान है। आप क्या कहती हैं इन आरोपों पर।

देखिए, विरोध का एक तरीका होता है। विरोध क्यों हो रहा है-ये मीडिया को पता है, लेकिन हमें पता ही नहीं। ऐसा नहीं होना चाहिए। अगर किसी को कोई परेशानी है तो उन्हें हमसे बात करनी चाहिए। मेरी कल ही किशोर तिवारी से बात हुई। उनकी मांग थी कि फिल्म की शुरुआत में एक कार्ड दिखाया जाए कि फिल्म की कहानी काल्पनिक है। मैंने उनसे पूछा कि आपने फिल्म कहां देखी है? क्योंकि ये कार्ड फिल्म की शुरुआत में दिखाया जा रहा है और अगर कुछ थिएटर मालिक ऐसा नहीं कर रहे हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। सेंसर बोर्ड ने एक बार नहीं-दो बार इसे देखकर पास किया है।

खैर विवादों को छोड़ते हैं। आप कह चुकी हैं कि फिल्म निर्माण में आमिर की दखलंदाजी बिलुकल नहीं थी और वो सिर्फ एक-दो बार सैट पर आए। लेकिन, फिल्म निर्माण में आपके पति महमूद फारुकी का कितना योगदान रहा। वो कास्टिंग डायरेक्टर की अपनी भूमिका से कितने आगे गए। जहां तक मुझे मालूम है फारुकी साहब ग़ज़ब टेलेंटेड शख्सियत है। वो इन दिनों कहानी कहने की एक पुरानी विद्या दास्तानेगोयी को जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं।

मैं कहूंगी कि कुछ डिपार्टमेंट में महमूद का योगदान मुझसे ज्यादा रहा। ये फिल्म मेरी और महमूद दोनों की है। फिल्म की कास्टिंग बहुत महत्वपूर्ण है और यह पूरा काम महमूद ने किया। वर्कशॉप लेने से लेकर कलाकारों से डील करने और लोकेशन देखने व चुनने तक कई काम महमूद के जिम्मे रहे। हमने उत्तर प्रदेश से मध्यप्रदेश लोकेशन शिफ्ट की तो जुबां बदल गई। एक्सेंट और लैंग्वेज में ऑरिजिनिलिटी लाने के लिए महमूद ने गांव वालों के कई इंटरव्यू किए। गांव में उम्र-लिंग,धर्म के आधार पर अलग अलग इंटरव्यू किए गए। और फिर ये इंटरव्यू कलाकारों को दिए गए। जिसका जैसा करेक्टर था वैसे। उन्होंने कलाकारों की बॉडी लैंग्वेज कैसी हो-इस पर बहुत काम किया।

तो आपको नहीं लगता कि महमूद फ़ारुकी साहब को कोई क्रेडिट नहीं मिल पाया?

मुझे बिलकुल ऐसा लगता है। लेकिन यह मेरे हाथ में नहीं है। हम फिल्म के पार्ट हैं। हालांकि, फिल्म से जुड़े करीब 150 लोगों को ये बात पूरी तरह मालूम है कि महमूद ने क्या काम किया है। लेकिन क्रेडिट देना प्रोडक्शन हाउस का काम है।

लेकिन, महमूद साहब को कहीं सामने नहीं लाया गया। कोई क्रेडिट नहीं दिया गया। इसकी क्या वजह रही।

अब इसका जवाब मैं कैसे दे सकती हूं। ये सवाल तो आपको प्रोडक्शन हाउस से पूछना चाहिए।
 
आपने कभी किसी डायरेक्टर को असिस्ट नहीं किया। फिल्म मेकिंग का कोर्स नहीं किया। बावजूद इसके एक बेहतरीन फिल्म बना डाली। ये कैसे संभव हुआ। पत्रकार होने के नाते लेखन पक्ष तो समझ आता है पर निर्देशन?

फिल्म मेकिंग एक अलग आर्ट जरुर है। लेकिन ये रॉकेट साइंस नहीं है। एक बात है कि कई बार आप एक्जाम देने जाते हैं और पेपर देखकर एक भी सवाल नहीं आता तो हंसी आती है। यही हमारे साथ भी था। हम दिल्ली से गए थे। फिल्म बनानी नहीं आती थी। लेकिन,हमने सोचा था कि फिल्म बनेगी तो भले खराब बने लेकिन वो हमारी फिल्म होगी। मैं, महमूद और बाकी सभी लोगों ने जिस तरह काम किया-फिल्म उस मेहनत का नतीजा है। बस मन में था कि अपनी फिल्म बनानी है। हां, फिल्म विधा के बारे में जानकारी न होने की वजह से समय बहुत लगा। लेकिन, कोई रुल-रेगुलेशन नहीं था। नहीं मालूम था कि कैमरा कैसे चलेगा। लेकिन, इससे फायदा यह हुआ कि किसी रुल-रेगुलेशन में फंसे नहीं। जो किया अपने मन से किया। अपने अंदाज में किया। इस बीच में महमूद ने बहुत बातें संभाली-इसमें कोई शक नहीं।

आमिर ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि आप मंगल पांडे की शूटिंग के दौरान उनसे ‘पीपली लाइव’ के लिए मिली थी। इतने साल गुजर गए। आखिर, इतने लंबे इंतजार की वजह क्या रही। क्या आपको लगा कि आमिर प्रोड्यूस करेंगे तो फिल्म को पब्लिसिटी अच्छी मिलेगी, और ऐसा हुआ भी। आखिर आप आमिर के पास ही क्यूं गईं।

देखिए,आमिर खान की फिल्म मंगल पांडे-द राइजिंग जब रिलीज हो रही थी, तब मैंने उन्हें फिल्म का आइडिया भेजा था। आमिर के पास इसलिए गए क्योंकि हम दिल्ली से गए थे। आमिर लगातार कह रहे थे कि उन्हें नयी स्क्रिप्ट पर काम करना है। वो ऐसी फिल्मों को प्रोड्यूस करना चाहते थे। मुझे आसान लगा। प्रोड्यूसर खोजना एक काम है, और यह काम मुझसे हो नहीं सकता था। जो सबसे पहली बार सामने आ गया-उसी के साथ जुड़ गए। फिर, आमिर ने फिल्म के सब्जेक्ट में दिलचस्पी दिखायी-तो किसी और के पास जाने का सवाल नहीं था। हां, देर बहुत हो गई। दरअसल, कभी फिल्म शुरु होने का वक्त एक बार में तय नहीं हो पाया। कई बार सोचा कि दूसरा प्रोड्यूसर खोज लें। लेकिन,वेटिंग पीरियड ऐसा होता था कि सोच नहीं पाए। मसलन-तीन महीने। फिर, दो महीने। ऐसा करते हुए टाइम गुजर गया।

तो आप फ्रस्टेट नहीं हुईं?

जवाब-कई बार हुई। लेकिन, आप कुछ और कर भी नहीं सकते थे। टाइम तय होता तो कुछ और प्रोजेक्ट हाथ में ले सकते थे। लेकिन,वेटिंग पीरियड हर बार इतना छोटा होता कि कुछ और काम हाथ में नहीं ले पाए। इसे बस मैं ये कहूंगी कि एक बहुत लंबा पीरियड ऑफ इंतजार रहा।

ये बताइए कि इस फिल्म को बनाने का बीज दिमाग में कहां से पड़ा?

जवाब-दरअसल, टेलीविजन पर किसानों की खुदकुशी से जुड़ी एक डॉक्यूमेंट्री आ रही थी, और उसे देखकर ही फिल्म का मूल आइडिया आया था। हमारे देश में खुदकुशी करने वाले दो फीसदी किसानों को भी मुआवजा नहीं मिल पाता, लेकिन यह एक स्कीम तो है। लेकिन, सरकार नहीं सोचती कि जो किसान धीरे धीरे सुसाइड करने को मजबूर हो रहा है, उन्हें बचाने के लिए क्या नीतियां होनी चाहिए। सरकार पांच हजार करोड़ रुपए के कर्ज माफ कर सकती है, लेकिन अनाज खरीद मूल्य बढ़ाने के बाबत नहीं सोचती।

 
आपकी फिल्म का प्लॉट बिली विल्डर की फिल्म द एस इन द होल से मिलता है। कुछ हद तक कहानी का प्लॉट मध्य प्रदेश में मौत की भविष्यवाणी करने वाले ज्योतिषी कुंजीलाल की कहानी से मिलता है।

जवाब-आप कुछ भी कह सकते हैं। एस इन द होल मैंने देखी नहीं थी अभी तक। मैंने इंटरनेट पर पढ़ा है कि कुंजीलाल के बेटे फिल्म के लिए रॉयल्टी मांग रहे हैं। जबकि फिल्म की कहानी सात साल पहले ही लिखी जा चुकी थी।

आपको लगता है कि आपकी फिल्म हिट होने के बाद बाद महिला निर्देशकों को और अधिक मौके मिलेंगे। क्योंकि भारतीय महिला निर्देशकों में फरहा खान के बाद आप हैं,जिसकी फिल्म व्यवसायिक तौर पर इतनी बड़ी हिट हुई है।

हो सकता है कि ऐसा हो। मुझे नंबर का अंदाज नहीं है। लोग फिल्म देख रहे हैं। लेकिन, दो साल बाद कौन याद रखेगा-यह महत्वपूर्ण है। हर हफ्ते नयी फिल्म आती है। लोग उसकी चर्चा करते हैं, लेकिन जरुरी यह है कि आने वाले सालों में आपकी फिल्म को लोग याद करें।

‘पीपली लाइव’ सफल हो चुकी है। एक कम बजट की फिल्म रिकॉर्डतोड़ सफलता हासिल कर रही है, वो भी एडल्ट सर्टिफिकेट के साथ। लेकिन, आपको नहीं लगता कि आप यूए सर्टिफिकेट भी हासिल कर सकती थीं और फिर फिल्म की पहुंच और व्यापक होती।

देखिए, फिल्म में ऐसी भाषा नहीं है,जो ठूंसी हुई हो। आज स्कूल में पढ़ने वाले दस साल के बच्चे न केवल उस भाषा से परि‍चित हैं, बल्कि इस्तेमाल भी करते हैं। मैं यह नहीं कहती कि ऐसा करना चाहिए। बिलकुल नहीं करना चाहिए। लेकिन, गांव देहात की जो भाषा है, जिसमें मुहावरे के तौर पर गालियां आती हैं, तो उसे दिखाने से परहेज क्यों। लोग गांव को भूल रहे हैं, अपनी भाषा को भूल रहे हैं, फिल्म में जिस तस्वीर को गया है तो उसमें ऐसी भाषा को हटाया नहीं जा सकता।

उन नौजवानों को आप क्या गुर सीखाना चाहेंगी, जिनके पास कहने को बहुत कुछ है लेकिन फिल्म माध्यम की जानकारी नहीं है। वो फिल्म बनाना चाहते हैं, लेकिन नहीं बना सकते। अब वो आपको अपना आदर्श मान सकते हैं।

देखिए, मैं कहना चाहूंगी कि फिल्म बनाना बहुत मेहनत का काम है और बहुत थका देने वाला काम है। लेकिन, अगर फिल्म बनानी है तो कोशिश तो करनी पड़ेगी। हां, ये कोई रॉकेट साइंस नहीं है। इसमें डरने जैसी कोई बात नहीं है। जहां तक पीपली लाइव का सवाल है तो यह कुछ अनुभवों पर केंद्रित है। और इस विश्वास के साथ बनी है कि हम मुख्य मुद्दे को डाइल्यूट किए बगैर अपनी बात कहेंगे। स्क्रिप्ट की वजह से बहुत सारे लोग हमसे जुड़ते चले गए। बहुत छोटे बजट की फिल्म है।

भविष्य में फिल्म बनाने की कोई और योजना। या कुछ और प्लान हैं।

अभी तो दास्तानेगोई पर काम कर रहे हैं। फिल्म पर अभी कोई काम नहीं। हम फिलहाल दिल्ली वापस आ गए हैं।

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